Monday, January 16, 2012

अस्तित्व की लड़ाई ....

किसी भी  त्यौहार , शादी  ब्याह  ,बच्चे के जन्म जैसे अनेको उत्सवो पर यह घर के दरवाजों पर दस्तक देते नज़र आ जाते है | आस पड़ोस के लोग इन्हें घूर घूर कर देखते ,कभी इन पर हस देते है तो कभी गालियाँ देकर भगा देते है| इन्हें हम हिजड़े ,छक्के ,किन्नर और न जाने किन किन नामो से पूकारते है  | इन्हें शुभ संकेतो के रूप में देखा जाता है तो इसी समाज में लोग इनसे किनारा करते हुए भी नज़र आते है लेकिन ऐसी भी क्या बेरुखी की इनके वजूद पर की सवाल खड़े कर दिए जाये | इंसान की पहचान ही उसके वजूद को जीने की वजह देती है लेकिन जब किसी से उसकी पहचान ही छीन ली जाये तब ? डर लगता है न अपनी पहचान खोने से ? लेकिन हमारे देश में ५ लाख किन्नर ऐसे है जो अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे है| वैसे हमारे देश में कमाल की बात है कि चुनाव आयोग और जनगणना के आंकड़ों की मानें तो देशभर में एक भी किन्नर नहीं है। यह सुनकर आप चौंक सकते हैं, लेकिन यह सच है। वोटर आईडी कार्ड में लिंग वाला कॉलम भरते समय मेल या फीमेल यानी महिला या पुरुष में से एक ऑप्शन ही चुनना पड़ेगा। यानी आयोग मानता है कि देश में एक भी किन्नर नहीं है| एक तरफ तो समाज इन्हें एक तीसरी जाति के रूप में देखा जाता है तो वही सरकार आजतक इनकी पहचान दिलाने के बारे में सोचना तक ज़रूरी नहीं समझती | यह हमारे लिए शर्म की बात है कि किसी ने इस बात पर गौर करने तक की ज़हमत तक नही की लेकिन हाँ किन्नरों को देख कर हंसने ,ताने मारने और उन्हें देख कर मुंह मोड़ने में सब ज्ञानी है |
वैसे हमारे देश में आज तक किसी भी जनगणना में किन्नरों की गिनती नहीं की गई है। 2001 की जनगणना के मुताबिक देश में या तो महिलाएं हैं या पुरुष हैं, लेकिन किन्नर समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं है। 2011 में शुरू हुई जनगणना में सरकार ने पहली बार लिंग वाले कॉलम में महिला या पुरुष के साथ अन्य का भी ऑप्शन दिया है। पहचान की इस लड़ाई में कई सवाल हैं। किन्नरों के लिए वोटर आईडी जैसे कार्ड में कोई पहचान नहीं दे रखी है। मोबाइल फोन की सिम लेनी हो या किसी बैंक में खाता खुलवाना हो, वोटर आईडी की जरूरत पड़ती ही है। लेकिन किन्नरों को इस आईडी के नाम पर एक झूठी पहचान ही अपने साथ ढोनी पड़ रही है। किन्नर आज भी कागजों पर केवल औरत या आदमी ही हैं। लेकिन तमाम ज़िन्दगी कागजों के सहारे नहीं जी जा सकती हर व्यक्ति समाज में अपनी पहचान बनाना चाहता है लेकिन जब यही पहचान समाज द्वारा छीन ली गयी हो तो चाहते हुए भी वह न ही इस देश का हिस्सा बन पता है न ही समाज का बस लोगो की हंसी व गुस्से का पात्र मात्र रह जाता है | लोगों की बलाएं लेने वाले किन्नरों का पीछा कर रही बलाओं को खत्म करने की फिक्र भी जरूरी है।   

Friday, November 25, 2011

मेरी जम्मू यात्रा

दिल्ली की वो कोहरे भरी शाम और घर में मेरा हर तरफ माँ को आवाज़ लगा कर ये कहना कि मम्मा मुझे ये नही मिल रहा, वो नही मिल रहा और दूसरी तरफ बार बार मेरे दोस्तों का फ़ोन आना | जैसे तैसे सारा सामान समेत कर रेलवे स्टेशन के लिए निकल गयी लेकिन न चाहते हुए भी  लेट हो गयी  और  वहा खड़े मेरे ५ दोस्तों ने  मेरा  मुक्को से स्वागत किया (ऐसा स्वागत किसी को प्राप्त न हो बहुत दर्द होता है ) लेकिन शुक्र है ट्रेन प्लेटफोर्म पर खडी थी वर्ना न जाने उस दिन मेरा क्या होता  | ट्रेन तय समय से चल पड़ी और हम पांचो ने सारी ट्रेन अपने सर पर उठा रखी थी हद तो तब हो गयी जब बगल वाली सीट पर सोए एक व्यक्ति ने हमें यह कह दिया कि ' सो जाओ रात हो गयी है शोर मचा के रखा है . अब भला हम जैसे उल्लू एक साथ हो तो नींद तो आही नही सकती | लेकिन न जाने कब बतियाते बतियाते आंख लग गयी और जब आँख खुली तो ट्रेन  पूरी खाली थी आखिर अलार्म कि तरह चाए वालो कि आवाज़ जो गूंज रही थी ( सारी नींद ख़राब कर के रख दी थी ) | सारा माहौल देख कर यह ज़ाहिर हो रहा था कि हम जम्मू पहुँच गए लेकिन हमे  माता वैष्णो देवी के दर्शन करने कटरा तक का अभी सफ़र अभी और करना था इसलिए रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर किसी साधन कि व्यवस्था करने लगे लेकिन वहा सैकड़ो  कि संख्या में खड़े बस, गाड़ी ,टेम्पो और न जाने क्या क्या सवारियों के इंतजार में खड़े थे | लेकिन देखते ही देखते बड़ी संक्या में कुछ लोग हमारे पास आए और अपने साधनों क़ी खूबिया बताने लगे ,कुछ तो हमारे बैग पकड़ कर अपनी गाड़ी क़ी तरफ ले जाने लगे जैसे तैसे हमने अपने बेगो को संभाला और एक बस में बैठ गए ( प्रति व्यक्ति ५० रुपये किराया ) |बस ने हमे २ घंटे में कटरा पंहुचा दिया , कटरा पहुच कर मन को एक राहत मिली क़ी चलो आखिर अपनी मंजिल पहुँच ही गए | लेकिन अभी एक परेशानी और बाकि थी क़ी आखिर ठहरेंगे कहा तो कुछ होटलों का मुआयना किया और फिर एक होटल क़ी तमाम खूबियों से प्रभावित होकर हमने उस होटल में २ कमरे लिए लेकिन जैसा क़ी होटल के मालिक ने हमे भांति भांति प्रकार क़ी सुविधाओ से अवगत कराया था उसमे से आधी  सुविधाए न जाने कब का दम तोड़ चुकी थी जैसे टीवी में केबल न आना ,  गरम पानी क़ी चोबीस घंटे सुविधा लेकिन बाथरूम में नही और भी  पता नही क्या क्या | चलो जैसे तैसे हमने एडजस्ट कर ही लिया और १४ किलोमीटर क़ी चढ़ाई करने के लिए तैयार हो गए |हर तरफ खुबसूरत पहाड़ ,एक छोटी सी नदी जो उसे और भी सुंदर बना रही थी | हर तरफ भीड़ ,कुछ लोग चढ़ाई चढ़ रहे थे तो कुछ उतर रहे थे, दुकानों से माता के भजनों कि आवाज़  | सब कुछ मन मोह लेने वाला था | लेकिन जहा ६ नमूने हो और वहा लड़ाई न होती ऐसा तो हो ही नही सकता था | जैसे ही माता के दर्शन करने के लिए निकले न जाने किस बात को लेकर सब में बहस हो गयी और हम २ टुकड़ियो में में बट गए| बस फिर क्या था जय माता दी ,जय माता दी के नारों के बीच में थोड़ी बहुत बहस  का सिलसिला चलता रहा जब तक की हम अर्धकुआरी नही पहुच गए | थके हारे एक लम्बी लाइन में खड़े जय माता दी बोलते रहे ,४ घंटे बाद अर्धकुआरी के दर्शन प्राप्त हुए लेकिन वैष्णो माता के दर्शन करने के लिए अभी भी २ किलोमीटर  की चढाई और एक लम्बी कतार हमारा इंतजार कर रही थी| न शरीर में प्राण थे न मुह में जबान बस एक कदम और एक कदम और करते करते हम अपनी मंजिल तक पहुच ही गए | माता के सामने खड़े होकर अपनी फर्मायिशो की लम्बी चौड़ी लिस्ट सुना दी |बस तब मन को ऐसी शांति मिली मानो अब परीक्षायो में हम ही अव्वल  आने वाले हो |मंदिर से बाहर निकल कर हमने कुछ देर विश्राम किया और फिर २ किलोमीटर और चल पड़े क्योंकि अभी हमे भैरो  बाबा के दर्शन जो करने थे क्योकि यहाँ की यही मान्यता है की जब तक भैरो बाबा के दर्शन न हो यात्रा पूरीं नही मानी जाती | जितना दर्द पहाड़ को चढ़ने में हुआ  उससे ज्यादा दर्द पहाड़ उतरते वक़्त हुआ | उस वक़्त तो हम सभी को ऐसा एहसास हो रहा था की कोई  हमे हमारे कमरे तक पंहुचा दे या कृपया करके लिफ्ट की सुविधा प्राप्त करवा दे | अगली सुबह तक माता की कृपा से हम सब सुरक्षित अपने होटल के कमरों में पहुच गए और ऐसा सोये की अगले दिन सबकी नींद खुली | जिसके बाद हमने आस पास के बाजारों का मुआयना किया और ढेर सारी वस्तुए अपने दोस्तों और परिजनों के लिए खरीदी ( यहाँ हर वस्तु के दाम पर तोल मोल होता है कृपया एक दाम देकर स्वयं कि जेब खाली न करे ) |आखिरकार  हम वापस दिल्ली आ गए लेकिन साथ में बहुत सारी खट्टी मिट्ठी यादो के साथ जो जीवन के एक यादगार पृष्ट के रूप में सज गया | 

Sunday, March 13, 2011


                                     जे.एन.यू. छात्र संघ चुनाव




जे एन यू अपने बेहतरीन शैक्षिक माहौल के अलावा कुछ अन्य चीज़ों के लिए भी जाना जाता है जो इसे अन्य शैक्षिक संस्थानों से अलग करता है। यहां की छात्र राजनीति भी उनमें से एक है। यहां चुनावी मुद्दों में छात्र हितों की बात तो होती ही है पर यह जानकर शायद आपको आश्चर्य हो कि यहां सिंगुर, नंदीग्राम, गोधरा और आतंकवाद के साथ-साथ इजराइल-फ़िलीस्तीन और न्यूक्लियर डील जैसे मुद्दे भी चुनावों में अहम भुमिका निभाते हैं। इन मुद्दों पर छात्र संगठनों के बीच न सिर्फ़ स्वस्थ और सार्थक बहस होती है बल्कि छात्रों की बौद्धिक सोच को समाज तक पहुंचाकर जागरुकता फ़ैलाने और एक जन-आंदोलन की शुरुआत करने की कोशिश भी की जाती है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस प्रकार की गंभीर और मुद्दों और मूल्यों से जुड़ी राजनीति छात्रों को न सिर्फ़ एक वैचारिक धरातल प्रदान करती है बल्कि विभिन्न सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर उनके विचारों को एक नई परिपक्वता देती है। ये छात्र जब अपनी शिक्षा पूरी करके नौकरशाही, व्यवसाय, राजनीति या समाज के अन्य किसी क्षेत्र का हिस्सा बनते हैं तो निश्चित रूप से उस क्षेत्र को एक कुशल और प्रखर नेतृत्व प्रदान करते हैं। प्रकाश करात और सीताराम येचुरी जैसे नेता जे एन यू छात्र राजनीति की ही देन हैं

लेकिन जे.एन.यू. छात्रसंघ का चुनाव पिछले तीन सालों से छात्र संघ चुनाव संबंधी लिंगदोह कमेटी से असहमतियों के चलते नहीं हो सका है | लड़ाई न्यायालय में जारी है | पर इधर चुनाव न होने से पनपी राजनीतिक-निष्क्रियता से प्रशासन अपनी नीतियों में निरंकुश और छात्र-हित-विरोधी भी होता जा रहा है |वही यूथ फॉर इक्वेलिटी के कार्यकारी सदस्य अमित कुमार का कहना है कि लिंगदोह कमेटी कि सिफारिशे एक खुबसूरत  तोहफा है और हमारी पार्टी ने हमेशा लिंगदोह कमेटी का स्वागत किया है लेकिन इसमें एक आद बाते ऐसी है जिसमे बदलाव कि आवश्यकता है जैसे आयु सीमा | हमारे अनुसार २८ वर्ष कि जो आयु है उसे बढ़ा देना चाहिए क्योंकि कुछ कारणों से छात्र कि शिक्षा में रुकावत आ सकती है और उसकी आयु २८ वर्ष से ज्यादा हो सकती है | 
दूसरी ओर डी एस यू कि कार्यकारी सदस्य बनोज्योत्सना का कहना है कि हमारी पार्टी लिंगदोह कमेटी के खिलाफ है क्योंकि लिंगदोह कमेटी छात्र लिंगदोह कि नीतियों के अनुसार छात्र संग का निर्माण होता है तो वह पूरी तरह प्रशासन कि मुट्ठी में रहेगा तथा प्रशासन इसे अपनी तरह इस्तेमाल करेगी जब देश में अलग- अलग जगहों पर चुनाव विचारधारा पर नही बल्कि फ़ेसवैल्यू, जाति, धर्म के समीकरणों पर लड़े जा रहे हों तब सबकी नजरें  जे एन यू के छात्रों की ओर हैं । पिछले तीन सालों से कैम्पस में छात्र संघ चुनाव नही हुये हैं और जिसका असर  सभी देख रहे हैं । चुनाव इस कैम्पस के लिये महज छात्र प्रतिनिधि चुनने भर कि प्रक्रिया नही है बल्कि छात्रसंघ चुनाव इस कैम्पस की सांस्कृतिक परंपरा , हमारे आम जीवन का एक बड़ा हिस्सा है। जे.एन.यू. छात्र संघ के चुनावों ने सालों से इस देश के सामने लोकतंत्र का एक आदर्श रखा है। इस कैम्पस में हम अपने छात्र प्रतिनिधियों से चुनाव के पहले सवाल करते हैं , उनके पिछले साल के कामों का लेखा जोखा माँगते हैं , उनसे जुड़े हुए राजनैतिक दलों की नीतियों और कामों पर सवाल खड़े करते रहे हैं । जे.एन.यू. के चुनावों ने हमे वो लोकतांत्रिक माहौल मुहैया कराया है जहाँ हम अपने अधिकारों, सरकार की नीतियों को बहस के दायरे में ला सकें । देश के तमाम अन्य विश्वविद्यालय जहाँ कई सालों से चुनाव नही हो रहे वहाँ कैम्पस प्रशासन ने सुनियोजित तरीके से छात्रों से अपनी बात रखने का मौलिक अधिकार भी छीन लिया है ।

Monday, January 17, 2011

ब्लॉगिंग करना आसान नहीं .

दोस्तों आज मैं आपसे एक गंभीर विषय या कहे समस्या पर बात करने जा रही हूँ जो मेरे जैसे नए नए चिट्ठाकारो के सामने पोस्ट लिखते समय आती है ......यह कुछ इस प्रकार है :
  1. कोई विषय न मिलना  (Blogger’ block) : कभी कभी ऐसा होता है कि आप चिठ्ठाकारी करते करते उब जाते हैं और आप को कोई नया विषय ही नहीं सूझता जिस पर आप लिख सकें। यह ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी समस्या है जिसको लेकर बहुत कुछ लिखा गया है।
  2. आपके विषय पर किसी और का लिखा जाना : यह तब होता है जब आप किसी विषय पर लिखने की सोच रहे होते है पता चलता है कि किसी अन्य चिठ्ठाकार ने उसी विषय पर बहुत ही अच्छा लिख मारा है तो आप का सारा उत्साह काफूर हो जाता है।
  3. कॉलेज में लोगो द्वारा निगाह रखना  :  जो लोग अपने कॉलेज से छिप कर ब्लाग लिखते हैं उनको ये परेशानी रहती है किसी  को पता न चल जाय या फिर कोई देख न ले या फिर किसी दिन कुछ अच्छा लिखने का मन है, विषय भी तैयार है पर उसी दिन कॉलेज से काम ज्यादा मिल जाता है 
  4. बिजली का जाना :  आप ब्लॉगिंग के लिये तैयार हैं, धांसू सा विषय भी सोच लिया लेकिन जैसे ही कंप्यूटर ऑन किया कि बिजली चली गई। दिल्ली, मंबई की बात अलग है, बाकी देश में कोई गारंटी नहीं है कि कब बिजली आयेगी।
  5. इंटरनेट कनेक्शन डाउन होना : आप ने सब कुछ कर लिया। विषय चुन लिया, उस पर मैटर टाईप भी  कर लिया कर लिया, और जैसे ही पोस्ट करने बैठे कि पता चला इंटरनेट कनेक्शन डाउन हो गया और मेरे साथ तो ये समस्या कुछ ज्यादा ही है आखिर MTNL कनेक्शन जो है और एक बार तो मेरे नेट का बिल ८००० तक पंहुच गया था लेकिन इसकी कहानी फिर कभी बताउंगी......
  6.  कमाई न होना  :  ऐसा हिन्दी व अन्य भाषाओं के चिठ्ठाकारों के साथ ज्यादा होता है। अपने ब्लॉग से किसी भी प्रकार की कोई कमाई न होने से भी चिठ्ठाकार का उत्साह खत्म  हो जाता है और वो ब्लॉगिंग छोड़ देता है। 
  7. टिप्पणी न मिलना :  ये समस्या हिन्दी ब्लॉगिंग में कुछ ज्यादा है , यहां अगर किसी ब्लॉगर को प्रशंसा वाली टिप्पणियां न मिले तो उसको लगता है कि उसके लेखन को किसी ने देखा ही नहीं और वो ब्लॉगिंग के प्रति निराश हो जाता है। इसलिए कृपया मेरे लेख पर समय समय पर टिप्पणी  करते रहें
  8. कृपया मेरे ब्लॉग के नाम जैसा नाम न रखे : दोस्तों ये बहुत  गंभीर समस्या है ...मेरी कक्षा में हर दूसरा इंसान दिल्ली नाम से ब्लॉग बना रहा है अब मैं इसका कारण क्या बताऊँ ....मेरी पढ़ाई  का एक विषय ब्लॉग भी है ...एक दिन बातो बातो में मेरे अध्यापक ने मेरे ब्लॉग का उदहारण दे दिया मनो उस दिन के बाद तो मेरी कक्षा में दिल्ली नाम की लहर दोड़ गयी...  हर कोई अपने ब्लॉग का नाम करण दिल्ली जोड़ कर करने लगा ......एक बार तो मेरा मन किया की अपने ब्लॉग dillidhadkan की धड़कने ही रोक दू और अपने ब्लॉग का नाम बदल दूं फिर सोचा छड़ो यार..... बड़े बड़े देशो में छोटी छोटी बाते होती रहती है .........
 ब्लॉगिंग में और भी तमाम तरह का परेशानियां आती रहती हैं। लेकिन उत्साही चिठ्ठाकार फिर भी ब्लॉगिंग करते रहते हैं बिलकुल मेरे जैसे ......

Saturday, January 15, 2011

कौन कहता है भारत गरीब देश है ?

भारत एक गरीब देश है । अपनी गरीबी का रोना अक्सर हम रोते हैं । गरीबी पर सेमिनार करते हैं , गरीबी दूर करने की योजनाएं बनाते हैं और विदेशी दान मांगते हैं। पुराने जमाने को याद करते हुए नि:श्वास छोड़ते हैं और कहते हैं कि कभी भारत सोनी की चिड़िया हुआ करता था ।
लेकिन सच यह है कि यह सोने की चिड़िया अभी भी मौजूद है । फर्क इतना ही है कि हमारे हुक्मरानों की मिलीभगत से इसे भारत भूमि से बहुत दूर , सात समंदर पार , स्विट्जरलैण्ड के बैंकों की तिजोरियों में कैद रखा गया है । स्विस बैंकों के संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट  में वहाँ पर जमा भारतीयों की संपत्ति के जो आंकड़े जारी किए हैं  , वे हैरतअंगेज़ हैं । इन आंकड़ों के मुताबिक वहां के बैंकों में भारतीयों के 1456 अरब डॉलर जमा हैं । यह बहुत बड़ी राशि है । इसकी विशालता का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि यह पूरे भारत की कुल राष्ट्रीय आय से डेढ़ गुना है । भारत के कुल विदेशी ऋण का यह 13 गुना है । इस राशि का सालाना ब्याज ही केन्द्र सरकार के बजट से ज्यादा होगा । यदि इस राशि को वापस लाकर देश के 45 करोड़ गरीबों में बांट दिया जाए , तो हर गरीब आदमी को एक लाख रुपया मिल सकता है।
    यह स्पष्ट है कि यह काला धन है जो इस देश को लूटकर बेईमान उद्योगपतियों , दलालों , भ्रष्ट नेताओं , भ्रष्ट अफ़सरों , फिल्मी सितारों , क्रिकेट खिलाड़ियों आदि ने स्विस बैंकों में जमा किया है । इन बदनाम बैंकों में पूरी दुनिया का दो नम्बर का पैसा जमा होता है , क्योंकि यहाँ टैक्स नहीं लगता है और जमाकर्ताओं के नाम व खातों की जानकारी गोपनीय रखी जाती है । हैरानी की बात यह भी है कि स्विस बैंकों की जो मोटी जानकारी बाहर आई है , उसके मुताबिक वहाँ जमा रकम में पहले नंबर पर भारतीय हैं ।
    भारतीयों के 1456 अरब डॉलर के बाद काफ़ी पीछे , दूसरे नंबर पर 470 अरब डॉलर के साथ रूसी हैं । उसके बाद अंग्रेजों के 390 अरब डॉलर हैं , उक्रेनियनों के 100 अरब डॉलर तथा चीनियों के 96 अरब डॉलर जमा हैं । भारत के अलावा बाकी दुनिया के अमीरों का जितना धन वहाँ जमा है , सबको जोड़ भी लें, तो उससे भी ज्यादा धन भारतीयों का स्विस बैंकों में है । क्या इसे भी भारत की एक और गर्व करने लायक उपलब्धि माना जाए ? कौन कहता है कि भारत गरीब है ?................ 

Tuesday, January 11, 2011

सपने बेशकीमती होते हैं.........

सपने बेशकीमती होते हैं लेकिन उन्हें देखने के लिए कीमत नहीं देनी पड़ती। और शायद इसलिए हम सब ढेर सारे सपने देखते हैं।
हम सभी ना जाने बंद आँखों या खुली आँखों से कितने ही सपने देखते है,कुछ पाने का सपना तो कुछ बनने का सपना ......कहते है सपने कभी सच नहीं होते लेकिन मेरा मानना है सपने तो सब देखते है लेकिन कुछ ऐसे होते है जो सपने सिर्फ सच करने के लिए देखते है ...ऐसी ही एक कहानी है शरद की, सरद बाबू आईआईएम अहमदाबाद से पोस्ट ग्रैजुएट। बिट्स पिलानी से इंजीनियरिंग ग्रैजुएट। फूड किंग प्राइवेट लिमिटेड के नाम से केटरिंग कंपनी के मालिक। लेकिन एक दिन ऐसा भी था जब सालाना 8 करोड़ टर्नओवर वाली इस कंपनी का मालिक जो आज एक टाइम पर 5 हजार लोगों को खाना खिलाता है वो इतना भूखा था कि उसे चींटी के मुंह से नमकीन का दाना छीन कर खाना पड़ा था। शरद कहते है जब मैं 7 साल का था तो मेरी मां की हर महीने जब सैलरी आती थी तो वो मुझे भुजिया लेकर देती थीं। हम पांच भाई-बहन थे तो हमें अखबार पर थोड़ा-थोड़ा भुजिया मिलता था। लेकिन हम सभी में कॉम्पटीशन चलता था। मैं अपना भुजिया जल्दी से खाकर ये देख रहा था कि अब मुझे कौन देगा। तभी मैंने देखा उधर से एक चींटी भुजिया का एक दाना लेकर जा रही थी तो मैंने उससे नमकीन का एक दाना छीना और तुरंत खा लिया ....शरद जैसे ना जाने इतने ही लोग है जो गरीबी में रहकर कुछ कर दिखाते है लेकिन कुछ ऐसे भी है जो अपने सपने पूरे करना तो चाहते है लेकिन गरीब होने के कारण कर नहीं पाते .........इसलिए सपने देखना कभी मत छोड़ो लेकिन उसे बस सपने मत रहने दो ..............

Friday, January 7, 2011

उफ़...ये गोरा बदन

हर रोज़ की तरह आज भी मैं टीवी का रिमोट थामे कुछ  नए विज्ञापनों पर गौर  कर रही थी ...तभी सामने" फेयर एंड  लवली "का विज्ञापन दिख गया उसे देख मुझे मेरी एक मित्र की याद आ गयी जिसके बैग में किताबे हो ना हो  ... फेयर एंड लवली जरुर होती थी ....दिन में कम से कम चार बार तो क्रीम को वो चहरे पर ज़रूर लगाती थी ,एक दिन मौका मिलते ही मैंने उससे पूछ लिया यार तू इसे क्यों लगाती है ? उसका जवाब मिला.. अरे यार इससे रंग गोरा होता है ...
 दोस्तों आज की लड़कियाँ सफेद अश्व पर सवार एक सुंदर राजकुमार के सपने नहीं देखतीं। उनके स्वप्न में दिखते हैं, सफेद कार से उतरते स्मार्ट लड़के जो लडकियों को तभी पसंद करेंगे जब वह गोरी होंगी....पता नहीं आज कल लोगो की मानसिकता को क्या हो गया है ?माना की समय बदल रहा है। फिर भी कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं, जैसे कि किसी भी दंपत्ति की पुत्र की चाह। यहाँ भी विज्ञापनों नें उपभोक्ताओं की इस कमज़ोरी को ताड़ कर चतुराई से अपना उल्लू सीधा किया है। बड़ा आसान है ऐसे पिता के मस्तिष्क को पढ़ना जिसे न केवल “पुत्री” होने वरन् सांवली पुत्री होने का “शाप” मिला हो, जिसे न तो अच्छी नौकरी नसीब होगी और न ही ब्याह करना आसान होगा।जब तक गोरी बहुओं की तलाश जारी रहेगी, गोरेपन की क्रीम की तूती बोलती रहेगी। गोरा बनाने वाले सभी विज्ञापनों में एक चीज़ हमेशा सामान्य रहती है "सांवला रंग बदसूरती का सबब है और सांवलापन तुम्हारे सपनों की हर राह में रोड़े बन कर सामने आयेगा"...और भई गलती से तुम सावले हुए तो तुम्हारी खैर नहीं .....
यदि आप सोच रहे है  कि गोरेपन की क्रीम सिर्फ औरतें के लिए हैं तो जागिये जनाब ...अब तो "फेयर एंड हैंडसम " आ गयी है मर्दों को बनाये गोरा ....गोरे होने की टक्कर बराबर की है ..... वैसे क्या कोई क्रीम वाकई त्वचा का रंग बदल सकती है? इसका जवाब इमानदारी से मिले न मिले, गोरे रंग की चाहत के चलते निर्माता कंपनियों के वारे न्यारे हो रहे हैं।  चलिए अंत में आपको एक लोकप्रिय गोरेपन की क्रीम के विज्ञापन की पंक्ति बताती  हूँ “कुछ भी ऐसा नहीं जो बदला ना जा सकता हो”, वाकई! लगता है सब कुछ बदल सकता है, सिवाय गोरी चमड़ी के प्रति हमारी उपनिवेशी चाहत को छोड़ कर।